गाँधी होना कितना अासान है?? in Hindi

यह लेख उन लोगों के लिये बहुत ही लाभदायक है जो कि गाँधी होना चाहते है, सिर्फ चाहते ही नही हैं, गाँधी होने का प्रमाणपत्र भी चाहते हैं अौर प्रमाणपत्र से प्राप्त होने वाली विभिन्न सुविधाअों का, वाहवाही का भोग भी करना चाहते हैं।  चौंकिये मत ऐसे बहुत दुकानदार हैं भारत में जो गाँधी होने का प्रमाणपत्र देते हैं अौर उनके प्रमाणपत्रों के अाधार पर ही भारत का मीडिया, विदेशी मीडिया अौर अप्रवासी भारतीय लोगों के महान होने, सामाजिक प्रतिबद्ध होने या ना होने का मूल्यांकन करते हैं।  चूँकि ये दुकानदार लोग पूरी तरह व्यवसायिक हैं अंग्रेजी में इन्हे प्रोफेशनल कहा जा सकता है।  जैसे कि भारत मे हर गली कूचे में खुलने वाले इंजीनियरिंग कॅालेज के मालिक लोग इन कॅालेजों मे पढ़ने वाले छात्रों मे से कुछ की नौकारियों का जुगाड़ करते हैं ताकि इन कॅालेजों मे अाने वाले छात्रों में इन कॅालेजों के प्रति अास्था बनी रहे उसी तरह गाँधी होने का प्रमाणपत्र देने वाले प्रोफेशनल्स अपने कस्टमर लोगों के लिये मीडिया कवरेज, प्रायोजित अान्दोलनों, विदेशों से अाने वाला फंड तथा विभिन्न प्रकार के पुरस्कारों का भी पूरा इन्तजाम करते हैं।

जैसे कि व्यवसायिक कॅालेजों के छात्रों के कोइ रिश्तेदार यदि किसी बड़ी कंपनी में अच्छी पोस्ट मे हुये तो भले ही कैसी भी योग्यता हो केवल डिग्री होने के अाधार पर अच्छी कंपनी में अच्छी नौकरी लग जाती है, जुगाड़ मे अासानी होती है।  बिलकुल इसी तरह यदि अापके या अापकी पत्नी के रिश्तेदारों में किसी ने कभी किसी ऐसी संस्था में काम करने के बदले वेतन पाया हो जो कि गांधी के नाम पर चलती हो या गांधीवादी होने का प्रमाणपत्र रखती हो तो अापको गांधी होने का या गांधीवादी होने का प्रमाणपत्र मिलने अौर बेहतर सुविधायें प्राप्त करने मे अासानी होती है, यदि अाप भाग्य से ब्राम्हण जाति के हों तो समझिये कि अापकी दशों उंगलियां घी में अौर सिर कढ़ाहे में अाप खुद ही एक दुकानदार बन जाइये।  दुकानदार बनने के लिये बड़े अौर स्थापित दुकानदारों से संबद्धता लेनी होती है जो कि उन लोगों के प्रायोजित अान्दोलनों मे भाग लेने से या उनके लिये कुछ कस्टमरों का इन्तजाम कर देने से अासानी से मिल जाती है।  यदि अाप ब्राम्हण हैं अापके या अापकी पत्नी के कोई ऐसे रिश्तेदार हैं भी हैं जिन्होने कभी कुछ क्षणों के लिये गांधी जी के किसी अाश्रम मे जाकर कुछ देर बैठ लिया हो या कुछ चने चबा लिये हों या पानी पी लिया हो या दूर से ही गांधी जी की अावाज सुनने को पा लिये हों तब तो अापने अभी तक अपनी क्षमता पहचानी ही नही है अाप को तो गांधीवादियों का नेतृत्व संभालना चाहिये क्योकि जो योग्यतायें खुद गांधी जी को अपनी खुद की नैसर्गिक संतानों मे नही दिखी थीं वह योग्यतायें अापमें हैं अापको जरुरत है तो बस एक स्थापित दुकानदार से गांधी या गांधीवादी होने के प्रमाणपत्र की।

अब चूंकि दुनिया में बहुत बदलाव हो रहे है दुनिया के बाजार विकास के नाम पर अार्थिक विकास के नाम पर, अार्थिक स्वातंत्र्य के नाम पर संभ्रान्त वर्ग की विलासिता वाली चीजों को अाम लोगों की पहुच तक ला रहें हैं तो गांधीवाद के क्षेत्र में भी कुछ प्रगतिशील दुकानदार गांधी-बाजार का वैश्वीकरण करने के लिये अागे अा रहें हैं, इनमे से अधिकतर लोग हैं तो ब्राम्हण जाति के लोग किन्तु अमेरिका में बहुत सालों तक रहकर प्रगतिशीलता को जाने समझे, लोकतंत्र को समझे, जनान्दोलनों का असली मर्म समझे, अमेरिका में बैठ के वहाँ की अति उन्नत तकनीक की बनी अाम समाज को जानने समझने वाली विशेष किस्म की दूरबीनों से भारत के असली समाज को जाने अौर समझे हैं।  तो ऐसे लोगों ने पहले तो खुद तो पुराने दुकानदारों से खुद के गांधी होने के प्रमाण लिये फिर थोड़ा जुगाड़ तगाड़ कर के अपनी खुद की दुकानें जमा ली, ये नये प्रगतिशील किस्म के दुकानदार पुराने दुकानदारों से बेहतर हैं क्योकि ये लोग जाति के अाधार पर प्रमाणपत्र नहीं देते बल्कि प्रायोजित अान्दलोनों की जरुरतों के अाधार पर, या फंड के जुगाड़ के अाधार पर या मीडिया में सुर्खियां लाने मे कौन कितना सहयोगी हो सकता है इन सब की गणित के अाधार पर देतें हैं।  कुछ न्यूनतम अहर्तायें अति अावश्यक है वे यह हैं कि अापके पास धन की, संसाधनों की कमी नही होनी चाहिये यदि अाप करोड़ों का फंड लाते रहे हों तो अापकी योग्यता अौर भी बढ़ जाती है अौर अापके अन्दर सामाजिक प्रतिबद्धता, अन्दर की असली वाली ईमानदारी नही होनी चाहिये।  यही योग्यतायें अागे चल कर अापको कोई विदेशी पुरस्कार भी दिलवा सकतीं हैं जिनकी बड़ी मांग रहती है भारत में अौर भारतीय मीडिया इन पुरस्कारों में खूब हवा भी भरे रहता है।

जैसे कि कॅालेजों में लोग लाईन लगा के डिग्री लेने जाते हैं, कुछ सुनिश्चित किताबें होती हैं उनको रटते रहिये अौर डिग्रियां लेते जाईये अौर योग्य बनते जाईये।  जैसे कि अाजकल चल रही विभिन्न प्रकार की अाध्यात्मिक किस्म वाली दुकानों मे जाईये कुछ दिनों वाले शिविर कीजिये तो अाप समझदार हो जायेगें यदि अाध्यात्मिक शिक्षक होना चाहते हैं तो लगातार इन शिविरों को करते जाईये अौर शब्दों को रट कर वैसे ही दोहराते जाने की कला सीख लीजिये, लीजिये अब अाप अाम बेवकू्फ किस्म के नही रहे अाप समझदार हो चुकें हैं अौर अाध्यात्मिक शिक्षक होने का चोला पहन लीजिये, अापको बने बनाये चेले मिल जायेंगें अौर 5 हजार से 15-20 हजार रुपये हर महीने उपर से तन्खवाह ऊपर से मिलेगी (अाजकल के यही रेट चल रहे हैं, वेतनमान का कम या अधिक होना अापकी विदेशी भाषाअों मे पकड़ तथा कम्प्यूटर के ज्ञान पर निर्भर करता है)।  बिलकुल इसी प्रकार से अाप कुर्ता पायजामा पहन लीजिये, लुंगी पहनें तो अौर बढ़िया, गांधी जी टाईप धोती पहन लें तो सबसे बढ़िया, कुछ सुनिश्चित किस्म की शब्दावली का प्रयोग सदैव करते रहें जिसमे कि ग्राम स्वराज, स्वावलंबन, अहिंसा, लोकतंत्र इत्यादि किस्म की शब्दावली अौर इस लेख में बताये गये किस्म के लोगों से प्रमाणपत्र जरूर ले लें नही तो सारा किया धरा बेकार।

क्या कहा अापने कि अापकी पहुंच नही इन बड़े लोगों तक, अापके पास संसाधन नहीं; अाप चिन्ता ना करें अाप इनकी पत्नियों अौर बच्चों के पास जाकर कुछ दिन रहें अौर घरेलू कामकाज करें, बच्चों को नहलायें धुलायें, परिवार के कपड़े धोयें, घर की साफ सफाई करें अौर इन लोगों के घरों मे रहते हुये भी अपने लिये खाना या तो खुद बनायें या खुद इन्तजाम करें। क्या कहा यह भी अापके बस का नहीं तो फिर इन लोगों के दृश्य/अदृश्य प्रबंधकों के पास जायें, अौर उन लोगों को मक्खन लगायें या सेटिंग बैठायें; नहीं समझे अाप, प्रबंधक का मायने वे लोग जो धन का सारा अावागमन देखतें हैं लेखा जोखा दुरुस्त रखते हैं, यदि अापने अपनी चतुराई से इन लोगों का भी मन मोह लिया तो कम से कम छोटा टाईप के गांधी अाप हो ही जायेंगें। अाप क्या इतनी बड़ी दुकानों को चलाने वालों को हलके मे लेते हैं, पहले ही बताया गया कि कहीं चूक नहीं पूरे के पूरे प्रोफेशनलन हैं ये लोग, छोटे मोटे लोगों को तो ये लोग फूंक मार कर उड़ा देते हैं अौर उड़ने वाले को पता भी नहीं चलता, अाप चिन्ता ना करें इन लोगों के पास वेतनभोगी लोगों की पूरी फौज है जो इन लोगों के एक ईशारे मे दुनिया के किसी भी कोने मे धरना प्रदर्शन व मीडिया बाजी के लिये पूरी तैयार रहती है, जरूरत पड़ने पर अमरीका वगैराह देशों से पत्रकार लोग भी अा जाते हैं जो कि इन लोगों के ही द्वारा स्थापित लोग हैं इसलिये वे लोग गम्भीर सामाजिक मुद्दों मे कभी नही अाते किन्तु इन लोगो के छोटे से छोटे से मुद्दों को भी अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बताने के लिये दौड़े चले अाते हैं।

इसलिये अाप बिलकुल भी चिन्ता ना करें ये दुकानदार देखे भाले हैं, साख वाले हैं अौर हल्ला मचाना भी जानते हैं, अौर पूरे साल नये नये प्रायोजित अान्दोलनों की संभावनायें खोजने मे लगे रहते हैं, यदि संभावनायें नही मिल पाती तो जोर जबरदस्ती से भी अान्दोलनों को प्रायोजित करना जानते हैं।  इनको लाखों करोड़ो सिर्फ इन्ही बातों के लिये अाते हैं कि ये लोग अौर अधिक बलात्कार कर सकें अाम समाज की अास्थाअों के साथ उनके विश्वासों के साथ।  इन दुकानदारों का एक बहुत मजबूत तंत्र है जो कि अदृश्य रूप मे बहुत गहरे जुड़ा हुअा है अौर एक दूसरे के वेस्टेड इन्टेरेस्ट्स की केवल चिन्ता करता है।

क्या बोले अाप, कि इन लोगों के जमीनी भी काम भी हैं क्या?  नही धरती की असलियत मे तो इनके काम जमीन मे नही किन्तु ये लोग जमीनी कामों के प्रमाण खूब रखते हैं।  अापस मे ही प्रमाणों के अादान प्रदान करते हैं।  अाम लोगो के बीच एक भ्रम बनाये रखने के लिये नये नये ढोंग रचते हैं, जरूरत पड़ने पर पुरस्कारों का भी व्यापार कर लेते हैं।  फिर से याद दिलाता हूं कि पूरे प्रोफेशनल हैं, अापको इनके तंत्रों मेम चूकें बहुत कम मिलेगीं तभी तो अाम समाज की हालत बद से बदतर होती जा रही है। अाम समाज की हालत तो यह है कि विश्वास करे तो किस पर।  बेचारा भारतीय अाम समाज।

यदि ये हल्ला मचाने वाले समाज के ठेकेदार लोग सच मे ही समाज के प्रति ईमानदार होते, सच मे ही जमीन मे काम करने वाले लोग होते तो क्या गाँधी जैसे महापुरुष के नाम के साथ बलात्कार इतनी अासानी से करते जाते, जो खुद गांधी के व्यक्तित्व की गहराई की प्रारम्भिक वर्णमाला नही जानते वे लोग दूसरों को गांधी होने या ना होने का प्रमाणपत्र बांटते हैं।  यदि इतनी ही शर्म होती इन दुकानदारों मे तो अाज भारत के असली समाज की स्थिति ही कुछ अौर होती।

सोचा कि हमको तो बाजारों की भाषायें अाती नहीं, तो क्यों ना दुकानदारों मे ही कुछ लिख मारा जाये, कम से कम अपनी खुद की अक्षमता की भड़ास निकल जायेगी।

लेखक-
विवेक उमराव ग्लेंडेनिंग
जून २००९

Corporate of Social Activism in India (first Draft in Hindi)

(यह लेख अभी अपूर्ण है, यह प्रस्तावना का पहला ड्राफ्ट है, अाप लोगो की सोच से, विचार से, काम करने के अनुभवों से यह एक बेहतर अौर परिष्कृत लेख बन पाये इसलिये यह बानगी अापको पेश है, मै स्वीकारता हूं कि इस लेख में अभी बहुत अधिक उठा पटक की जरुरत है-  विवेक उमराव ग्लेंडेनिंग)

प्रस्तावना:

इसे भारत के वृहत्तर अाम समाज का दुर्भाग्य ही समझा जाये कि अब भारत में अान्दोलन भी प्रायोजित किये जाने लगे हैं, एक नया चलन (fashion) अान-लाइन अान्दोलनों अौर क्रान्तिकारिता का भी अा चुका है।  पिछले दो दशकों में प्रायोजित अान्दोलनों, खोखली क्रान्तिकारिता अौर प्रायोजित सामाजिक गतिविधियों का कार्पोरेट जगत उभर कर अाया है।  आईये कुछ मंथन करें इन्हीं मुद्दों पर अौर पता लगाने का प्रयास करें कि अाज वास्तव में हम खड़े कहाँ हैं।

जिस समाज ने कभी बुद्ध, महावीर अौर गांधी जैसे महापुरुषों का निर्माण कर दिया, जिस समयकाल में लोग जन-अान्दोलनों का तात्पर्य नही समझते थे उस समयकाल में इन लोगों ने स्वतःस्फूर्त जन अान्दोलनों को राज सत्ताअों के समानान्तर खड़ा कर दिया।  ये महापुरुष लोग ऐसा कर सके क्योंकि ये लोग जन अौर जन-अान्दोलनों का सही तात्पर्य समझते थे।  मैं नही समझता कि बुद्ध कुछ लोगो की भीड़ लेकर जाते थे राजाअों के पास अौर उनकी राजधानियों में किसी कोने में या किसी सड़क में तम्बू लगाकर अामरण अनशन का ड्रामा किया करते थे अौर प्रेस कान्फेरेन्सेस कर पाने के लिये जुगाड़ लगाते थे या रोज हल्ला मचाते थे कि राजा हिंसा बंद करो या जीवों पर दया करने का एक कानून बनाअो ताकि लोग कानून के डर के कारण दया अौर अहिंसा का पालन करें।  जिस समय Internet नही था; TV, Radio, Newspaper अौर यातायात के सुगमता भरे साधन नहीं थे; अंग्रेजी जैसी वैश्विक भाषायें नहीं थीं;  संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी अंतराष्ट्रीय संधियां नहीं थी; डालर या पौण्ड जैसी वैश्विक मुद्रायें नहीं थीं जिनको कि स्थानीय मुद्राअों में परिवर्तित करके रहने, खाने व प्रेस कान्फेरेन्सेस का जुगाड़ किया जा सकता होता; उस समय की विषम परिस्थितियों में बुद्ध ने एशिया के बड़े भाग में एक वास्तविक जनान्दोलन खड़ा कर दिया था।  राजा लोग तो जन शक्ति के अागे झुकते चले गये थे जबकि उस समय लोकतंत्र नही था अौर राजा विवश नही होता था अपनी प्रजा के अागे झुकने के लिये।

मैं नही समझता कि गांधी जी लंदन की किसी सड़क में तम्बू लगाकर अंग्रेजों से भारत छोड़ने की मांग किये थे या रोज किसी ना किसी प्रेस कान्फेरेन्स में बोलने या किसी रेडियो में साक्षात्कार देने का जुगाड़ लगाते थे। गांधी जी ने अपनी बातों को बहुत सारे लोगो तक पहुचाने के लिये अपने पन्ने खुद छापते थे अौर खुद ही बांटते थे। वह अपने छापेखाने का प्रयोग जन-संवाद के लिये करते थे, छापे खाने में पर्चे छाप कर अान्दोलन करने का दिखावा नही करते थे।  गांधी जी के असली फंडर देश का अाम समाज था दूर-दूर से लोग बहुत सारी समस्यायें झेलकर उनके पास अपना सर्वस्व अर्पित करने के लिये पहुंचते थे।  गांधी जी भारत की जनता की सामाजिक सत्ता के केंद्र थे अौर वह किसी जुगाड़ या तिकड़म से केंद्र नहीं बने थे, वह अाम समाज के अाम व्यक्ति की ह्रदय की धड़कनों तक पहुंचे थे, अाम समाज उनको अपना प्रतिनिधि मानता था; अौर इसमे कोई संशय नही कि गांधी जी ने खुद को जीवन मूल्यों की गहराईयों तक उतारने का प्रयास निरन्तर अौर जीवन पर्यन्त किया था।

बुद्ध हों या गांधी हों या इन जैसे कोई अन्य, सभी ने स्वयम् को कठोरता से परखा, सामाजिक समाधान की प्रतिबद्धता को अपने निजी अौर पारिवारिक हानि-लाभों से बहुत उपर रखा।  जीवन मूल्यों का पालन स्वयम् में कठोरता से करते थे, दूसरों को दिखाने के लिये या महानता के प्रमाणपत्र लेने के लिये या पुरस्कारों की दौड़ में अपनी अहर्ता सुनिश्चित करने के लिये या सत्ताअों से संसाधन प्राप्त करने के लिये या फंड प्राप्त करने के लिये जीवन मूल्यों का ढोंग नहीं रचते थे।

अाज भारत में कुछ ऐसे सतही अौर खोखले लोग मौजूद हैं जो कि दूसरों को गांधी होने या ना होने के प्रमाणपत्र बांटते हैं, अब जो दूसरों को गांधी होने का प्रमाणपत्र देते रहते हों वह खुद को क्या समझते होंगे इसका अन्दाजा सहज ही लगाया जा सकता है।  अाज तो ऐसे ऐसे सतही महापुरुष हमारे बीच मौजूद हैं जो कोका-कोला, पेप्सी अादि का विरोध करने के लिये पूरे देश में प्रेस कान्फेरेन्सेस अौर प्रायोजित अान्दोलनों का ढोंग करते घूमते हैं अौर उनके अपने बच्चे उन्हीं के सामने उन्हीं के पैसों से गटागट कोक व पेप्सी पीते हैं अौर ये पैसे भी इन महापुरुषों को सामाजिक कार्यों को करने के ही बदले वेतन या मानदेय या सामाजिक सहयोग के रूप मे मिलते हैं, वह बात अलग है कि इमानदारी का ढोंग करने के लिये अकाउंट्स की लिखा पढ़ी मे क्या क्या दिखाते हों।  जो लोग अमरीका को रोज गरियातें हैं, उनको लाखों-करोड़ों का फंड ही इस अाधार पर मिलता है कि ये लोग अमरीका को गाली देकर स्वयम् को प्रगतिशील सिद्ध करते हैं, इन्ही लोगों के बच्चे पिकनिक मनाने अौर गर्मियों की छुट्टियां मनाने अमरीका जाते हैं अौर स्वयम् भी ये लोग लगभग हर साल अमरीका किसी ना किसी सामाजिक अान्दोलन का ढोंग रच कर महीना- दो महीना अमरीका विचरण करके अाते हैं।  जैसे अामिर खान अपनी फिल्म को अास्कर दिलाने के लिये लॅाबिंग करने के लिये अमरीका जाते हैं वैसे ही भारत की सामाजिक क्रियाशीलता के ठेकेदार किस्म के कथित सामाजिक महापुरुष लोग विभिन्न पुरस्कारों की लॅाबिंग के लिये या बड़े फंड की लॅाबिंग के लिये किसी ना किसी बहाने से अमरीका जाते रहते हैं अौर अमरीका को गरियाते भी रहते हैं अौर अमरीका के ही लोगों से अमरीका को गरियाने के प्रायोजित अान्दोलनों को अायोजित करने के लिये फंड लाते हैं भले ही कागजी लिखा पढ़ी मे स्थानीय सामाजिक सहयोग दिखाया जाता हो। अब पता नही कौन सा स्थानीय समाज भारत मे है जिसके लिये अपने रोज की बड़ी बड़ी समस्याअों से अधिक महत्वपूर्ण अमरीका को गरियाने की प्रगतिशीलता समझना है।  वही लोग जो कि लाखों-करोड़ों रुपये हर साल प्रायोजित अान्दोलनों को खड़ा करने के लिये, मीडिया की सुर्खियों मे बने रहने के लिये खर्चते हैं अौर कागजी लिखा पढ़ी में इस धन का अागमन जन सहयोग दिखाते हैं जबकि इन्हीं लोगों को छोटे छोटे शिक्षा के केन्द्रों को चलाने के लिये एक चवन्नी भी अमरीका से मगांनी पड़ती है, स्थितियाँ तो यहा तक हैं कि इन लोगो के प्रायोजित अान्दोलनों मे हल्ला मचाने के लिये या शुरुवाती भीड़ के लोग इन्ही लोगों के वेतनभोगी लोग होते है जिनका वेतन भी भारत के बाहर से अाता है।  अब पता नहीं भारत का ऐसा कौन सा बेवकूफ समाज है जो कि अपने बच्चों के लिये चल रहे छोटे-छोटे शिक्षा केंद्रों जिनका कि खर्च लगभग नगण्य होता है का खर्चा नही उठाता जबकि जिन प्रायोजित अान्दोलनों से अाम समाज का कोई सीधा लेना देना नहीं होता उनके लिये लाखों-करोड़ों का इन्तजाम कर देता है।  यदि ऐसा समाज भारत के किसी कोने मे सच मे अस्तित्व में है तो सत् सत् नमन् ऐसे विशिष्ट बुद्धिजीवी समाज को जो कि लोगों को हर सप्ताह या महीना हवाई यात्रायें करने का, महंगे सभागारों मे अभिजात्यीय मीटिंग्स करने का, प्रेस कान्फेरेन्सेस करने का, महंगी कार्यशालाअों को करने का, महंगी रिपोर्ट्स छापने का अनाप सनाप खर्चा दे देता है किन्तु वास्तविक विकास के कार्यों के लिये सहयोग नहीं करता है।  भारत की कुल जनसंख्या का कितना प्रतिशत लोग वास्तव में इन मीटिंग्स का, इन रिपोर्ट्स का, इन कान्फेरेन्सेस का मतलब समझता है या खुद को इनका हिस्सा मानता है या इनके हवाई मुद्दों को स्वयम् से जुड़ा मानता है या अपने खुद के मुद्दे मानता है।  अाम अादमी को जबरदस्ती मुद्दे रटाये जाते हैं ताकि प्रायोजित अान्दोलनों को जनान्दोलनों के रूप में परोसा जा सके ताकि थोड़ा हंगामा खड़ा किया जा सके, कुछ दिनों के लिये मीडिया की सुर्खियाँ बना जा सके अौर यदि जुगाड़ लग जाये सेटिंग बन जाये तो किसी पुरस्कार को ही हासिल कर लिया जाये या राजनैतिक सत्ता का ही भोग कर लिया जाये।

चलिये यदि मान भी लिया जाये कि इन कथित महापुरुषों को इनकी प्रायोजित चीजों को सहयोग देने वाला अाम समाज कहीं किसी कोने मे अदृश्य रूप में सच मे ही है तो इन कथित महापुरुषों की अपनी जिम्मेदारी क्या बनती है कि सामाजिक विश्वास अौर संसाधनों को वास्तविक अौर प्रोडक्टिव कार्यों में प्रयोग किया जाये या स्वयम् के अहंकारों के पोषण मे किया जाये।  कहीं से किसी भी  प्रकार के भोग का अवसर मिल जाये अब यही सामाजिक मूल्य हैं अौर जीवन मूल्य भी।

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Eknia Relief & Rehabilitation Works

Relief and Rehabilitation works supported by Association for India Development (USA), Lia Darby (Australia), Dr. Claire J. Glendenning (Australia), Vivek Umrao Glendenning, Abhijeet Minaxi, Rupesh K. Garg, Dharmendra Kumar Yadav, Karelal, Ravi Chaurasia and others.

(Photos by Vivek Umrao Glendenning)

Eknia Village Fire 2007 Bihar (India) (dead bodies included)

Photos by Vivek Umrao Glendenning